100 मीटर से कम ऊँची पहाड़ियाँ जंगल से बाहर: ‘ग्रेट ग्रीन वॉल’ से अरावली हटने पर क्या दिल्ली बन जाएगी रेगिस्तान? पूरा विवाद

भूमिका

अरावली पर्वतमाला भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है, जो उत्तर-पश्चिम भारत के पर्यावरणीय संतुलन में अहम भूमिका निभाती है। हाल के दिनों में अरावली को लेकर एक नया विवाद सामने आया है, जिसमें 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली पहाड़ियों को जंगल की परिभाषा से बाहर करने और ‘ग्रेट ग्रीन वॉल’ परियोजना से अरावली के कुछ हिस्सों को अलग किए जाने की बात कही जा रही है। इस फैसले के संभावित पर्यावरणीय प्रभावों को लेकर विशेषज्ञों, पर्यावरणविदों और आम लोगों के बीच चिंता बढ़ गई है।

अरावली पर्वतमाला का संक्षिप्त परिचय

  • अरावली पर्वतमाला की लंबाई लगभग 670–800 किलोमीटर है, जो गुजरात से शुरू होकर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली तक फैली हुई है।

  • यह दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में मानी जाती है, जिसकी उम्र लगभग 1.5 से 2 अरब वर्ष बताई जाती है।

  • अरावली पश्चिमी थार रेगिस्तान और पूर्वी उपजाऊ मैदानों के बीच एक प्राकृतिक अवरोध (बैरियर) का काम करती है।

  • दिल्ली में अरावली का विस्तार मुख्य रूप से साउथ दिल्ली के रिज क्षेत्र और आसपास के इलाकों में पाया जाता है।

दिल्ली-NCR और उत्तर भारत के लिए अरावली का पर्यावरणीय महत्व

  • अरावली रेगिस्तान से आने वाली धूल और रेत को रोकने में प्राकृतिक दीवार की तरह काम करती है, जिससे दिल्ली-NCR में धूल भरी आंधियों का प्रभाव कम होता है।

  • यह क्षेत्र भूजल रिचार्ज ज़ोन के रूप में कार्य करता है, जिससे दिल्ली और आसपास के इलाकों में पानी का स्तर बनाए रखने में मदद मिलती है।

  • अरावली की हरियाली तापमान को संतुलित रखने और हीटवेव के प्रभाव को कम करने में सहायक है।

  • यह क्षेत्र कई वन्यजीवों, पक्षियों और दुर्लभ पौधों की प्रजातियों का प्राकृतिक आवास है, जो जैव विविधता को बनाए रखता है।

  • वायु गुणवत्ता सुधारने में अरावली के जंगल कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर अहम भूमिका निभाते हैं।

हालिया विवाद क्यों चर्चा में है

  • सरकार द्वारा 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली पहाड़ियों को ‘जंगल’ की परिभाषा से बाहर रखने का प्रस्ताव सामने आया है।

  • इससे अरावली के बड़े हिस्से को वन संरक्षण कानूनों से बाहर किए जाने की आशंका जताई जा रही है।

  • ‘ग्रेट ग्रीन वॉल’ जैसी महत्वाकांक्षी परियोजना से अरावली के कुछ हिस्सों को हटाने की चर्चा ने पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा दी है।

  • विशेषज्ञों का मानना है कि इससे खनन, निर्माण और रियल एस्टेट गतिविधियों को बढ़ावा मिल सकता है।

  • दिल्ली के पर्यावरण पर इसके दीर्घकालिक प्रभाव, जैसे रेगिस्तानीकरण और वायु प्रदूषण बढ़ने का खतरा, इस मुद्दे को राष्ट्रीय बहस का विषय बना रहे हैं।

‘ग्रेट ग्रीन वॉल’ क्या है?

‘ग्रेट ग्रीन वॉल’ एक व्यापक पर्यावरणीय पहल है, जिसका उद्देश्य बढ़ते रेगिस्तानीकरण, भूमि क्षरण और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोकना है। भारत में इस परियोजना को विशेष रूप से उत्तर-पश्चिमी राज्यों में हरित आवरण बढ़ाने और पारिस्थितिक संतुलन बहाल करने के लिए एक दीर्घकालिक रणनीति के रूप में देखा जाता है। अरावली पर्वतमाला इस परियोजना की रीढ़ मानी जाती रही है, क्योंकि यह क्षेत्र प्राकृतिक रूप से रेगिस्तान और घनी आबादी वाले इलाकों के बीच हरित सुरक्षा कवच का काम करता है।

ग्रेट ग्रीन वॉल परियोजना की अवधारणा

  • ‘ग्रेट ग्रीन वॉल’ की वैश्विक अवधारणा अफ्रीका से शुरू हुई, जहाँ सहारा रेगिस्तान के फैलाव को रोकने के लिए विशाल हरित पट्टी विकसित की गई।

  • इस पहल का मूल उद्देश्य पेड़-पौधों और प्राकृतिक वनस्पति के माध्यम से रेगिस्तानीकरण को रोकना है।

  • इसमें वनीकरण, पुनर्वनीकरण और भूमि पुनर्स्थापन (Land Restoration) पर ज़ोर दिया जाता है।

  • यह परियोजना केवल पेड़ लगाने तक सीमित नहीं है, बल्कि स्थानीय पारिस्थितिकी को मजबूत करने की रणनीति पर आधारित है।

भारत में इसका उद्देश्य और दायरा

  • भारत में ग्रेट ग्रीन वॉल का लक्ष्य उत्तर-पश्चिम भारत में फैली शुष्क और अर्ध-शुष्क भूमि को हरा-भरा बनाना है।

  • यह परियोजना मुख्य रूप से राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में लागू की जानी थी।

  • इसका उद्देश्य थार रेगिस्तान के विस्तार को रोकना और मिट्टी के कटाव को कम करना है।

  • जल संरक्षण, भूजल रिचार्ज और स्थानीय जलवायु को संतुलित करना भी इस परियोजना के अहम लक्ष्य हैं।

  • यह पहल भारत की जलवायु परिवर्तन से निपटने की रणनीति और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं से भी जुड़ी हुई है।

अरावली को इसमें शामिल करने का महत्व

  • अरावली पर्वतमाला रेगिस्तान और घनी आबादी वाले इलाकों के बीच प्राकृतिक हरित दीवार का कार्य करती है।

  • यहाँ पहले से मौजूद प्राकृतिक वनस्पति ग्रेट ग्रीन वॉल को मजबूत आधार प्रदान करती है।

  • अरावली के माध्यम से दिल्ली-NCR जैसे क्षेत्रों को धूल, रेत और गर्म हवाओं से सुरक्षा मिलती है।

  • यह क्षेत्र जैव विविधता से समृद्ध है, जिससे परियोजना की पारिस्थितिक सफलता की संभावना बढ़ जाती है।

  • विशेषज्ञों के अनुसार, अरावली को बाहर करने से ग्रेट ग्रीन वॉल की प्रभावशीलता कमजोर हो सकती है और इसके दीर्घकालिक पर्यावरणीय लाभ घट सकते हैं।

100 मीटर से कम ऊँची पहाड़ियों को जंगल से बाहर करने का फैसला

हाल के नीतिगत बदलावों के तहत 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली पहाड़ियों और भू-आकृतिक संरचनाओं को ‘जंगल’ (Forest) की परिभाषा से बाहर रखने का फैसला सामने आया है। इस निर्णय को लेकर यह आशंका जताई जा रही है कि अरावली पर्वतमाला के बड़े हिस्से को अब वन संरक्षण कानूनों का संरक्षण नहीं मिलेगा, जिससे इन क्षेत्रों में विकास और व्यावसायिक गतिविधियों का रास्ता आसान हो सकता है।

नया नियम / परिभाषा क्या कहती है

  • नए प्रस्तावित नियमों के अनुसार, केवल वही पहाड़ी क्षेत्र ‘जंगल’ माने जाएंगे जिनकी ऊँचाई 100 मीटर या उससे अधिक है।

  • 100 मीटर से कम ऊँचाई वाले भूभाग को सामान्य भूमि या गैर-वन श्रेणी में रखा जा सकता है।

  • इसका मतलब है कि ऐसे क्षेत्रों पर वन संरक्षण अधिनियम जैसे कानून स्वतः लागू नहीं होंगे।

  • इन इलाकों में निर्माण, खनन और अन्य गतिविधियों के लिए मंज़ूरी प्रक्रिया सरल हो सकती है।

पहले और अब के नियमों में अंतर

  • पहले जंगल की पहचान केवल ऊँचाई के आधार पर नहीं होती थी, बल्कि वनस्पति, जैव विविधता और पारिस्थितिक महत्व को भी ध्यान में रखा जाता था।

  • सुप्रीम कोर्ट के पुराने आदेशों के अनुसार, रिकॉर्ड में दर्ज और वास्तविक रूप से वन जैसे दिखने वाले क्षेत्र भी ‘जंगल’ माने जाते थे।

  • नए नियम में भौगोलिक ऊँचाई को प्रमुख आधार बना दिया गया है।

  • इससे कई प्राकृतिक रूप से हरे-भरे, लेकिन कम ऊँचाई वाले क्षेत्र वन की कानूनी परिभाषा से बाहर हो सकते हैं।

किन क्षेत्रों पर इसका सीधा असर पड़ेगा

  • दिल्ली की साउथ और सेंट्रल रिज क्षेत्र की कई छोटी पहाड़ियाँ इस दायरे में आ सकती हैं।

  • हरियाणा के गुरुग्राम, फरीदाबाद और नूंह (मेवात) क्षेत्र की अरावली पहाड़ियाँ प्रभावित हो सकती हैं।

  • राजस्थान के अरावली क्षेत्र के कई निचले पहाड़ी हिस्से भी इस नियम के अंतर्गत आ सकते हैं।

  • इन इलाकों में खनन, रियल एस्टेट और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के बढ़ने की संभावना जताई जा रही है।

  • पर्यावरणविदों का मानना है कि इससे पूरे अरावली इकोसिस्टम पर नकारात्मक असर पड़ सकता है।

अरावली को लेकर पूरा विवाद

अरावली पर्वतमाला को लेकर उठा विवाद मूल रूप से पर्यावरण संरक्षण और विकास नीतियों के टकराव से जुड़ा है। एक तरफ सरकार नए नियमों को स्पष्टता और विकास के लिए ज़रूरी बता रही है, वहीं दूसरी ओर पर्यावरणविद् इसे अरावली के अस्तित्व और उत्तर भारत के पर्यावरणीय भविष्य के लिए खतरा मान रहे हैं। यह मुद्दा अब केवल प्रशासनिक फैसला नहीं रह गया है, बल्कि कानूनी, वैज्ञानिक और सामाजिक बहस का विषय बन चुका है।

सरकार का पक्ष और तर्क

  • सरकार का कहना है कि नए नियमों से जंगल की परिभाषा स्पष्ट होगी और भूमि उपयोग को लेकर भ्रम कम होगा।

  • 100 मीटर से कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों को जंगल न मानने से विकास परियोजनाओं में अनावश्यक कानूनी अड़चनें कम होंगी।

  • सरकार के अनुसार, इससे बुनियादी ढांचा, आवास और औद्योगिक विकास को गति मिलेगी।

  • यह भी तर्क दिया जा रहा है कि हरियाली संरक्षण के लिए वैकल्पिक उपाय, जैसे वृक्षारोपण और मुआवजा वनीकरण (Compensatory Afforestation), मौजूद हैं।

पर्यावरणविदों और विशेषज्ञों की आपत्तियाँ

  • विशेषज्ञों का मानना है कि ऊँचाई के आधार पर जंगल की पहचान वैज्ञानिक दृष्टि से उचित नहीं है।

  • अरावली की अधिकांश पहाड़ियाँ स्वाभाविक रूप से कम ऊँचाई की हैं, लेकिन उनका पारिस्थितिक महत्व अत्यधिक है।

  • जंगल का दर्जा हटने से खनन, निर्माण और अतिक्रमण तेज़ हो सकता है।

  • पर्यावरणविद चेतावनी दे रहे हैं कि इससे दिल्ली-NCR में वायु प्रदूषण, गर्मी और जल संकट और गहरा सकता है।

  • जैव विविधता और वन्यजीव आवासों के नष्ट होने का खतरा भी जताया जा रहा है।

कानूनी और नीतिगत पृष्ठभूमि

  • सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई ऐतिहासिक फैसलों में ‘जंगल’ की व्यापक परिभाषा दी है, जिसमें रिकॉर्ड से बाहर लेकिन वन जैसे क्षेत्र भी शामिल हैं।

  • वन संरक्षण अधिनियम, 1980 का उद्देश्य प्राकृतिक वनों को गैर-वन उपयोग से बचाना रहा है।

  • समय-समय पर राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा भूमि उपयोग नियमों में बदलाव किए गए हैं, जिन पर अदालतों ने आपत्ति भी जताई है।

  • अरावली क्षेत्र को लेकर पहले भी खनन प्रतिबंध और संरक्षण आदेश जारी हो चुके हैं।

  • नए नियमों को इन्हीं पुराने न्यायिक आदेशों के संदर्भ में चुनौती दिए जाने की संभावना जताई जा रही है।

क्या दिल्ली के रेगिस्तान बनने का खतरा है?

अरावली पर्वतमाला को दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों के लिए एक प्राकृतिक सुरक्षा कवच माना जाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि अरावली का बड़े पैमाने पर क्षरण हुआ या इसका संरक्षण कमजोर पड़ा, तो इसका सीधा असर दिल्ली-NCR की जलवायु, हवा की गुणवत्ता और जल संसाधनों पर पड़ सकता है। इसी आशंका के चलते यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि क्या अरावली के कमजोर होने से दिल्ली धीरे-धीरे रेगिस्तानी परिस्थितियों की ओर बढ़ सकती है।

अरावली की भूमिका: धूल, रेत और गर्म हवाओं को रोकने में

  • अरावली थार रेगिस्तान से आने वाली धूल और रेत को रोकने में प्राकृतिक अवरोध का काम करती है।

  • यह पर्वतमाला पश्चिमी गर्म और शुष्क हवाओं की तीव्रता को कम करती है।

  • अरावली की हरियाली धूल भरी आंधियों की आवृत्ति और प्रभाव को घटाने में मदद करती है।

  • इसके कमजोर होने से दिल्ली-NCR में धूल प्रदूषण और गर्म हवाओं की तीव्रता बढ़ सकती है।

जलवायु, भूजल और वायु गुणवत्ता पर संभावित असर

  • अरावली क्षेत्र वर्षा जल को संचित कर भूजल रिचार्ज में अहम भूमिका निभाता है।

  • जंगलों के नष्ट होने से बारिश का पानी तेजी से बहकर निकल सकता है, जिससे जल संकट गहरा सकता है।

  • हरियाली कम होने से तापमान बढ़ने और हीटवेव की तीव्रता बढ़ने की आशंका है।

  • पेड़ों की कमी से कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषण घटेगा, जिससे वायु प्रदूषण और स्मॉग की समस्या बढ़ सकती है।

वैज्ञानिक अध्ययनों और रिपोर्ट्स के संदर्भ

  • कई पर्यावरणीय अध्ययनों में अरावली को उत्तर भारत के लिए “ग्रीन बैरियर” बताया गया है।

  • वैज्ञानिक रिपोर्ट्स के अनुसार, अरावली का क्षरण रेगिस्तानीकरण की प्रक्रिया को तेज़ कर सकता है।

  • जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली क्षेत्र में वन आवरण घटने से स्थानीय माइक्रो-क्लाइमेट प्रभावित होता है।

  • अध्ययनों में यह भी चेतावनी दी गई है कि यदि संरक्षण उपाय कमजोर पड़े, तो दिल्ली-NCR में लंबे समय में सूखे जैसे हालात बढ़ सकते हैं।

कुल मिलाकर, विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि दिल्ली के तत्काल रेगिस्तान बनने की संभावना भले न हो, लेकिन अरावली के कमजोर होने से रेगिस्तानी प्रभावों का खतरा निश्चित रूप से बढ़ सकता है।

जैव विविधता और वन्यजीवों पर प्रभाव

अरावली पर्वतमाला केवल पहाड़ियों का समूह नहीं है, बल्कि यह एक समृद्ध और संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्र है। यहाँ की जैव विविधता दिल्ली-NCR और उत्तर-पश्चिम भारत के पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जंगल का कानूनी दर्जा कमजोर पड़ने या हटने से इस पूरे इकोसिस्टम पर गहरा असर पड़ सकता है।

अरावली क्षेत्र की वनस्पति और जीव-जंतु

  • अरावली क्षेत्र में शुष्क और अर्ध-शुष्क वनस्पति पाई जाती है, जिसमें धोक, खैर, पलाश, बेर, नीम और कीकर जैसे पेड़ शामिल हैं।

  • यह क्षेत्र कई औषधीय पौधों और दुर्लभ वनस्पतियों का प्राकृतिक आवास है।

  • अरावली में तेंदुआ, सियार, लोमड़ी, नीलगाय, सांभर, जंगली सूअर जैसे वन्यजीव पाए जाते हैं।

  • यहाँ बड़ी संख्या में पक्षी प्रजातियाँ, सरीसृप और कीट-पतंगे भी मौजूद हैं, जो पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखते हैं।

जंगल का दर्जा हटने से संभावित नुकसान

  • कानूनी संरक्षण कम होने से पेड़ों की कटाई और भूमि उपयोग में बदलाव तेज़ हो सकता है।

  • खनन और निर्माण गतिविधियाँ वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास को खंडित कर सकती हैं।

  • जैव विविधता में गिरावट से पूरे खाद्य श्रृंखला (फूड चेन) पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

  • कई स्थानीय और दुर्लभ प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा बढ़ सकता है।

मानव-वन्यजीव संघर्ष का खतरा

  • जंगलों के सिमटने से वन्यजीव आबादी वाले क्षेत्रों की ओर बढ़ सकते हैं।

  • इससे मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाएँ, जैसे फसलों को नुकसान और हमले, बढ़ने की आशंका है।

  • दिल्ली-NCR के आसपास पहले से ही तेंदुए और अन्य वन्यजीवों के देखे जाने की घटनाएँ सामने आती रही हैं।

  • विशेषज्ञों के अनुसार, आवास नष्ट होने से वन्यजीवों का व्यवहार अधिक आक्रामक और अस्थिर हो सकता है।

इस तरह अरावली का कमजोर संरक्षण न केवल प्रकृति, बल्कि मानव समाज के लिए भी दीर्घकालिक जोखिम पैदा कर सकता है।

विकास बनाम पर्यावरण संरक्षण

अरावली पर्वतमाला के मामले में विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो गया है। दिल्ली-NCR और आसपास के क्षेत्रों में खनन, रियल एस्टेट और बुनियादी ढांचे की तेजी से बढ़ती मांग ने अरावली के संरक्षण पर दबाव बढ़ा दिया है। वहीं, पर्यावरणविद और स्थानीय समुदाय सतत विकास और पारिस्थितिक संतुलन की ओर ध्यान देने की अपील कर रहे हैं।

खनन, रियल एस्टेट और बुनियादी ढांचे का दबाव

  • अरावली क्षेत्र में चूना पत्थर और अन्य खनिजों के लिए खनन गतिविधियाँ तेज़ हैं।

  • तेजी से बढ़ते रियल एस्टेट प्रोजेक्ट्स, मॉल और आवासीय कॉलोनियों के लिए जंगलों की कटाई की जा रही है।

  • सड़कें, रेलवे और औद्योगिक क्षेत्रों का निर्माण पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित कर रहा है।

  • विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि यह विकास बिना नियमन के अरावली की जैव विविधता और जल संसाधनों के लिए खतरा बन सकता है।

सतत विकास की आवश्यकता

  • विकास और पर्यावरण संरक्षण दोनों को एक साथ ध्यान में रखना आवश्यक है।

  • सतत विकास में प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, हरित पट्टियों का निर्माण और जल प्रबंधन शामिल है।

  • स्थानीय समुदायों और किसानों को भी परियोजनाओं में शामिल कर पारिस्थितिक संरक्षण और आर्थिक विकास का संतुलन बनाया जा सकता है।

  • विशेषज्ञ मानते हैं कि केवल आर्थिक विकास को प्राथमिकता देने से लंबे समय में नुकसान अधिक होगा।

वैकल्पिक समाधान और संतुलन की राह

  • कम ऊँचाई वाली पहाड़ियों और प्राकृतिक हरित क्षेत्रों को संरक्षण देने के लिए वैकल्पिक कानूनी ढांचे का निर्माण।

  • मुआवजा वनीकरण (Compensatory Afforestation) और वृक्षारोपण के प्रभावी उपाय अपनाना।

  • खनन और निर्माण गतिविधियों को पर्यावरणीय मूल्यांकन (EIA) के आधार पर सीमित करना।

  • स्थानीय स्तर पर सामुदायिक जंगल और हरित बेल्ट बनाने से पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखा जा सकता है।

  • तकनीकी और वैज्ञानिक उपायों से जलवायु, भूजल और जैव विविधता को संरक्षित करते हुए विकास करना संभव है।

इस तरह, अरावली में विकास और पर्यावरण संरक्षण को संतुलित करना न केवल संभव है, बल्कि भविष्य के लिए आवश्यक भी है।

निष्कर्ष

अरावली पर्वतमाला न केवल उत्तर-पश्चिम भारत का प्राकृतिक सौंदर्य है, बल्कि यह दिल्ली-NCR और आसपास के क्षेत्रों के पर्यावरणीय संतुलन का प्रमुख स्तंभ भी है। हाल के नियम और 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली पहाड़ियों को जंगल से बाहर करने का निर्णय, जबकि विकास और बुनियादी ढांचे को गति देने का प्रयास है, इसके पारिस्थितिक, जलवायु और जैव विविधता पर गंभीर प्रभाव पड़ सकते हैं।

विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों की चेतावनियाँ दर्शाती हैं कि अरावली के कमजोर संरक्षण से धूल, गर्म हवाओं, जल संकट और जैव विविधता पर नकारात्मक असर बढ़ सकता है। इसके अलावा, मानव-वन्यजीव संघर्ष और लंबे समय में पर्यावरणीय असंतुलन की संभावना भी गंभीर है।

इसलिए, विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। नीति सुधार, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, कानूनी संरक्षण और नागरिक भागीदारी के माध्यम से ही अरावली को सुरक्षित रखा जा सकता है। अगर सही दिशा में कदम उठाए जाएँ, तो यह क्षेत्र न केवल दिल्ली-NCR के लिए हरित कवच बना रहेगा, बल्कि सतत विकास और पारिस्थितिक सुरक्षा का प्रतीक भी बन सकता है।

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